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Friday, 5 August 2011

उत्तराखण्ड की संस्कृति...................



रहन-सहन
उत्तराखण्ड पहाड़ी प्रदेश है। यहाँ ठण्ड काफी होती है इसलिए यहां के लोगों के मकान पक्के होते हैं। दीवारें पत्थरों की होती है। पुराने घरों के ऊपर से पत्थर बिछाए गए हैं। वर्तमान में लोग सीमेन्ट का प्रयोग करने लग गए है। गरीब लोग पत्थरों के स्थान पर टिन की चादरें छत पर बिछाते हैं। अधिकतर घरों में रात को रोटी तथा दिन में भात (चावल) खाने का प्रचलन है। लगभग हर महीने कोई न कोई त्योहार होता है। त्योहार के बहाने अधिकतर घरों में समय-समय पर पकवान बनते हैं। स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली गहत, रैंस, भट्ट आदि दालों का प्रयोग होता है। प्राचीन समय में मडुवा व झुंगोरा स्थानीय मोटा अनाज होता था। अब इनका उत्पादन बहुत कम होता है। लोग बाजार से गेहूं व चावल खरीदते हैं। कृषि के साथ पशुपालन लगभ सभी घरों में होता है। घर में उत्पादित अनाज कुछ ही महीनों के लिए पर्याप्त होता है। कस्बों के समीप के लोग दूध का व्यवसाय भी करते हैं। पहाड़ के लोग काफी मेहनती होते है। पहाड़ों को काट-काटकर सीढ़ीदार खेत बनाने का काम इस मेहनत को प्रदर्षित भी करता है। पहाड़ में अधिकतर मजदूर भी पढ़े-लिखे है, चाहे कम ही पढ़े हों।

इसलिए घर पर अधिकतर लोग मजदूरी करना पसन्द नहीं करते हैं। अधिकतर लोग महानगरों में कम मजदूरी का कार्य करते है। उत्तरांचल के विकास योजनाओं में बिहार व नेपाल के मजदूर कार्य करते है। कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ मजदूरों से कार्य कराना ठेकेदार लोग भी पसन्द करते हैं।
हथकरघे से बुनाई वस्त्राभूषण
यहां की महिलाएं घाघरा, आंगड़ी तथा पूरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते थे। अब इनक स्थान पेटीकोट, ब्जाउज व साड़ी ने ले लिया है। जाड़ों में ऊनी कपड़ों का प्रयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यो के अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परम्परा है। गले में गलोबन्द, चर्‌यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनने की परम्परा है। सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चॉंदी के पौंजी तथा पैरों में बिछुए, पायजब, पौंटा पहने जाते हैं। घर परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परम्परा है। विवाहित औरत की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है।

कुमाऊँनी महिला आभूषण सज्जित महिला
अधिकतर पुरूष सेना या अन्य नौकरी में बाहर हैं। गाँवों में मनीआर्डर भेजते हैं। उसी से खर्चें चलाते हैं। घर के कामकाज की जिम्मेदारी महिला पर ही होती है। कृषि कार्य अधिकतर महिलाएं ही करती हैं। पूरूष केवल हल जोतने का कार्य करता है। गांवों में किसी के घर कोई काम-काज होता है तो गांव के सभी लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं। रबी या खरीफ की फसल के समय पहला अनाज देवी देवता को चढ़ाने की परम्परा है। पर्वतीय क्षेत्र के गावों में लोग अपने इष्ट की पूजा के 22 दिन तक विशेष पूजा का आयोजन करते है। 22 दिन की पूजा होने के कारण इस पूजा को ‘बैसी' कहा जाता है। वर्तमान समय में यह पूजा 11 दिन तथा 5 दिन की भी होने लगी है। उत्तरांचल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, अनुसूचित जाति, ईसाई, सिक्ख तथा मुसलमान सभी समुदायों के लोग रहते हैं। ब्राह्मण व क्षत्रियों की जनसंख्या अधिक है। सभी जाति व धर्मों में कुछ लोग अपने को उच्च मानते हैं। माना जाता है कि यहां के अधिकतर लोग मैदानी क्षेत्रों से आकर यहां बसे हैं।
पारम्परिक परिधान
लोक परम्पराएं
आज के विज्ञान के युग में लोक परम्पराएं लुप्त होती जा रही है। यद्यपि इन परम्पराओं का आधार वैज्ञानिक रहा है, किन्तु इन परम्पराओं को कुछ लोगों ने आजीविका का साधन बना लिया है। परम्परा को जनता का शोषण करने का आधार बनाया जा रहा है। आज की तरह प्राचीन समय में इलाज के साधन नहीं थे। यातायात के साधन नहीं थे। लोक एक-दूसरे के सुखःदुख में भागीदारी करते थे। कोई बीमार होता था तो लोग रात भर उसके घर पर रहकर उसका साथ देते थे। ठण्ड से बचने के लिए साधन नहीं थे। बीमार के घर के बाहर धूनी जलाकर आग सेंकते थे। दुःख बांटने के लिए गांव का ही कोई लोकगायक लोकगाथा गाता था।
गांव के सयाने बुजुर्ग का सब लोक सम्मान करते थे। देवता के रूप में पूजते थे। इससे लगता है कि उत्तराखण्ड का प्राचीन समाज कितना संवेदनशील था। समय बदला लोकगाथा गाने वाला गायक गायन के लिए पैसे मांगने लगा। गाँव का सयाना आदमी जिसे लोग देवता की तरह मानते थे वह भी डंगरिया के रूप में पारम्परिक बन गया। कुछ डंगरिये तो शराब भी पीने लगे। कहने का तात्पर्य था परम्परा अच्छी थी, किन्तु उसका रूप बिगड़ गया। उत्तरांचल के ग्रामीण अंचलों में आज भी लोग दुःख, बीमारी आदि की स्थिति में अपने घर पर जागर लगवाकर अपने इष्ट से मनौती मांगते है। घर के आंगन में घूनी जलाई जाती है। लोक गायक के रूप में ढोल बजाने वाले को मजदूरी देकर बुलाया जाता है। ढोल बजाने वाले को 'औजी' कहा जाता है। गांव में ही देवता का प्रतीक कोई आदमी होता है, उसे डंगरिया कहा जाता है। औजी (ओझा) जब ढोल बजाता है। डंगरिये के शरीर में कम्पन होता है। वह जो भी बोलता है, उसे देवता का बोल माना जाता है। अपनी श्रद्धा व परम्परा के अनुसार लोग देवी, पाण्डवों, कत्येर, गोलू, हरज्यू, सैम, नृसिंह, भोलनाथ, गंगनाथ आदि देवी-देवताओं को जागर लगाकर उनसे अपने दुःख निवारण की प्रार्थना करते है। उत्तराखण्ड के गांवों में अभी भी काफी लोग इस परम्परा पर विश्वास करते हैं। कई क्षेत्रों के लोगों का विश्वास है कि बलि देने पर देवता प्रसन्न होते हैं तथा मन की मुराद पूरी करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रेतात्मा व मृत आत्माओं के पूजन की भी परम्परा है। यहां की सामाजिक परम्परा में कृषि कार्य को सामूहिक रूप से करने की परम्परा है। रोपाई तथा गुड़ाई के समय गांव की महिलाएं समूह में एक परिवार के खेत में एक साथ कार्य करती है। महिलाओं के साथ लोकगायक हुड़के की थाप पर लोकगाथा गाता है। लोकगाथा के बीच में महिलाएं भी बीच-बीच में कार्य करते हुये गाना गाती है। इससे कार्य जल्दी होता है तथा थकावट नहीं आती है। इस परम्परा को हुड़की बौल कहा जाता है।

लोक गायक विविध धार्मिक सांस्कृतिक कार्यक्रम
भाषा
उत्तराखण्ड की मुख्य भाषा हिन्दी है। यहाँ अधिकतर सरकारी कामकाज हिन्दी में होता है। नगर क्षेत्रों में हिन्दी बोली जाती है। कुमायूँ मण्डल के ग्रामीण अंचलों में कुमायूंनी तथा गढ़वाल मण्डल के ग्रामीण क्षेत्रों में गढ़वाली भाषा बोली जाती है। कुमायूंनी तथा गढ़वाली भाषा को लिखने के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है। गढ़वाल के जौनसार भाबर क्षेत्र में जो भाषा बोली जाती है उसे जौनसारी बोली/भाषा कहा जाता है।
कुमायूंनी भाषा: कुमायूं में अधिकतर लोग कुमांयूनी बोली/भाषा का प्रयोग करते है। कुमायूंनी भाषा में संस्कृत के शब्द काफी देखने को मिलते है। यहां के महान कवि गुमानी आदि की रचनाओं को देखते हुए लगता है कि यहां प्राचीन समय से संस्कृत भाषा का प्रचलन रहा है। कुमायूंनी भाषा में अंग्रेजी शब्दों के स्थान पर कुमायूंनी या हिन्दी के शब्द प्रयोग में लाये जाऐंगे तो लोग नहीं समझ पाएंगे। कुमायूंनी भाषा के विकास में 'अल्मोड़ा अखबार' की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कुमायूंनी भाषा नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चम्पावत, बागेश्वर तथा ऊधम सिंह नगर में बोली जाती है। माना जाता है कि खसपर्जिया, चौगर्खिया, गडई, दनपूरिया, पछाई, रोचोवैसी, कुमाई, सौर्याली, सीराली, अस्कोटी कुमायूनी भाषा की उपबोलियां है। कुमायूंनी भाषा बोलने वाले एक जनपद को लें तो एक ही जनपद के दूसरे इलाकों में कुमायूंनी का लहजा परिवर्तित हो जाता है। बोली/भाषा से किसी व्यक्ति के निवास का पता लगाया जा सकता है। कुमायूंनी भाषा के कई साहित्यकारों ने ग्रन्थ लिखें है। रचनाएं लिखी है। कई लोग कुमायूंनी भाषा की पत्र-पत्रिकाएं भी प्रकाशित कर रहे हैं। आकशवाणी अल्मोड़ा, कुमायूंनी भाषा में गीत, लेख, कहानी, कविताएं भी प्रसारित करता है। इससे कुमायूंनी बोली को प्रोत्साहन मिला है।
गढ़वाली भाषा: उत्तराखण्ड के गढ़वाल मण्डल में गढ़वाली भाषा बोली जाती है। चमोली, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, रूद्रप्रयाग में गढ़वाली भाषा बोली जाती है। गढ़वाली भाषा में भी काफी ग्रन्थों की रचनाएं हुई है। गढ़वाली भाषा में भी कई पत्र-पत्रिकाएं उत्तरांचल तथा देश के विभिन्न महानगरों से प्रकाशित हो रही है। आकाशवाणी नजीबाबाद तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं गढ़वाली भाषा के प्रसार के लिए प्रयासरत है। आकशवाणी नजीबाबाद से कुमायूंनी, गढ़वाली के साथ ही जौनसारी भाषा के गीत व बोली को प्रोत्साहन दिया जा रहा हैं व्यवहार में कुमायूंनी व गढ़वाली भाषा में अधिक अन्तर नहीं है। कुमायूं व गढ़वाल की सीमा में रहने वाले लोग कुमायूंनी व गढ़वाली मिश्रित भाषा बोलते हैं यदि गढ़वाली या कुमायूंनी भाषा का उच्चारण धीरे-धीरे किया जाए तो कोई भी हिन्दी भाषी कुमायूंनी तथा गढ़वाली भाषा को समझ सकता है। गढ़वाल मण्डल के विभिन्न भागों में बोली जाने वाली गढ़वाली उपबोली को बधाणी, सलाणी, जौनसारी, खांल्टी, बजारी, श्रीनगरी, टिहरियाली तथा समसी नाम से जाना जाता है। उत्तराखण्ड के देहरादून, ऊधम सिंह नगर तथा हरिद्वार में हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू, बंगाली, पंजाबी आदि भाषाएं बोली जाती है।
उत्तराखण्ड में भाषानुसार जनसंख्या का विवरण
क्र0सं0 भाषाएं कुल भाषा-भाषी प्रतिशत विवरण
1. हिन्दी 02,19,881 88.22
2. उर्दू 4,07,299 5.77
3. पंजाबी 1,85,158 2.63
4. बंगाली 1,02,200 1.45
5. अन्य 1,36,096 1.93
6. योग 70,50,634 100.00
प्रमुख बोलियां

गढ़वाली : यह बोली राज्य के गढ़वाली क्षेत्र में बोली जाती है।
कुमायूंनी : यह बोली राज्य के कुमायूं क्षेत्र में बोली जाती है।
भोटिया: यह बोली राज्य के तिब्बत तथा नेपाल क्षेत्र से लगे क्षेत्र में बोली जाती है।
जौनसारी : यह बोली देहरादून के जौनसार भाबर क्षेत्र में बोली जाती है।
टिहिरयालीः यह बोली राज्य के टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में ्यापक रूप से बोली जाती है।

लोक कलाएं
लोक कला की दृष्टि से उत्तराखण्ड काफी समृद्ध है। घर की सजावट में ही लोक कला सबसे पहले देखने को मिलती है। दशहरा, दीपावली, नामकरण जनेऊ आदि शुभ अवसरों पर महिलाएं घर में ऐंपण (अल्पना) बनाती है। इसके लिए घर, ऑंगन या सीढ़ियों को गेरू से लीपा जाता है। चावल को भिगोकर उसे पीसा जाता है। उसके लेप से आकर्षक चित्र बनाए जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, स्नान चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवीत चौकी, विवाह चौकी, धूमिलअर्ध्य चौकी, वर चौकी, आचार्य चौकी, अष्टदल कमल, स्वास्तिक पीठ, विष्णु पीठ, शिव पीठ, शिव शक्ति पीठ, सरस्वती पीठ आदि परम्परागत गाँव की महिलाएं स्वयं बनाती है। इनका कहीं प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। हरेले आदि पर्वों पर मिट्टी के डिकारे बनाए जाते है। ये डिकारे भगवान के प्रतीक माने जाते है। इनकी पूजा की जाती है। कुछ लोग मिट्टी की अच्छी-अच्छी मूर्तियां (डिकारे) बना लेते हैं। यहाँ के घरों को बनाते समय भी लोक कला प्रदर्षित होती है। पुराने समय के घरों के दरवाजों व खिड़कियों को लकड़ी की सजावट के साथ बनाया जाता रहा है। दरवाजों के चौखट पर देवी-देवताओं, हाथी, शेर, मोर आदि के चित्र नक्काशी करके बनाए जाते है। पुराने समय के बने घरों की छत पर चिड़ियों के घोंसलें बनाने के लिए भी स्थान छोड़ा जाता था। नक्काशी व चित्रकारी पारम्परिक रूप से आज भी होती है। इसमें समय काफी लगता है। वैष्वीकरण के दौर में आधुनिकता ने पुरानी कला को अलविदा कहना प्रारम्भ कर दिया। अल्मोड़ा सहित कई स्थानों में आज भी काष्ठ कला देखने को मिलती है। उत्तरांचल के प्राचीन मन्दिरों, नौलों में पत्थरों को तराश कर (काटकर) विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र बनाए गए है। प्राचीन गुफाओं तथा उड्यारों में भी शैल चित्र देखने को मिलते हैं।
उत्तराखण्ड की लोक धुनें भी अन्य प्रदेशों से भिन्न है। यहां के बाद्य यन्त्रों में नगाड़ा, ढोल, दमुआ, रणसिंग, भेरी, हुड़का, बीन, डौंरा, कुरूली, अलगाजा प्रमुख है। यहां के लोक गीतों में न्योली, जोड़, झोड़ा, छपेली, बैर व फाग प्रमुख होते हैं। इन गीतों की रचना आम जनता द्वारा की जाती है। इसलिए इनका कोई एक लेखक नहीं होता है। यहां प्रचलित लोक कथाएं भी स्थानीय परिवेश पर आधारित है। लोक कथाओं में लोक विश्वासों का चित्रण, लोक जीवन के दुःख दर्द का समावेश होता है। भारतीय साहित्य में लोक साहित्य सर्वमान्य है। लोक साहित्य मौखिक साहित्य होता है। इस प्रकार का मौखिक साहित्य उत्तराखण्ड में लोक गाथा के रूप में काफी है। प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे। लाकगायक रात भर गांव वालों को लोक गाथाएं सुनाते थे। इसमें मालसाई, रमैल, जागर आदि प्रचलित है। अभी गांवों में रात्रि में लगने वाले जागर में लोक गाथाएं सुनने को मिलती है। यहां के लोक साहित्य में लोकोक्तियां, मुहावरे तथा पहेलियां (आंण) आज भी प्रचलन में है। उत्तराखण्ड का छोलिया नृत्य काफी प्रसिद्ध है। इस नृत्य में नृतक लबी-लम्बी तलवारें व गेंडे की खाल से बनी ढाल लिए युद्ध करते है। यह युद्ध नगाड़े की चोट व रणसिंह के साथ होता है। इससे लगता है यह राजाओं के ऐतिहासिक युद्ध का प्रतीक है। कुछ क्षेत्रों में छोलिया नृत्य ढोल के साथ श्रृंगारिक रूप से होता है। छोलिया नृत्य में पुरूष भागीदारी होती है। कुमायूं तथा गढ़वाल में झुमैला तथा झोड़ा नृत्य होता है। झौड़ा नृत्य में महिलाएं व पुरूष बहुत बड़े समूह में गोल घेरे में हाथ पकड़कर गाते हुए नृत्य करते है। विभिन्न अंचलों में झोड़ें में लय व ताल में अन्तर देखने को मिलता है। नृत्यों में सर्प नृत्य, पांडव नृत्य, जौनसारी, चांचरी भी प्रमुख है। 
लोक नृत्य
विविध लोक नृत्य:गढ़वाल का प्रागैतिहासिक काल से भारतीय संस्कृति में अविस्मरणीय स्थान रहा है। यहां के जनजीवन में किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारत के दर्शन सुलभ है। इस स्वस्थ भावना को जानने के लिए यहां के लोक नृत्य पवित्र साधन है। यहां के जनवासी अनेक अवसरों पर विविध प्रकार के लोक नृत्य का आनन्द उठाते हैं।
विशेष लोक नृत्य
धार्मिक नृत्य: देवी-देवताओं से लेकर अंछरियों (अप्सराओं) और भूत पिशाचों तक की पूजा धार्मिक नृत्यों के अभिनय द्वारा सम्पन्न की जाती है। इन नृत्यों में गीतों एवे वाद्य यंत्रों के स्वरों द्वारा देवता विशेष पर अलौकिक कम्पन के रूप में होता है। कम्पन की चरमसीमा पर वह उठकर या बैठकर नृत्य करने लगता है, इसे देवता आना कहते हैं। जिस पर देवता आता है, वह पस्वा कहलाता है। 'ढोल दभाऊँ' के स्वरों में भी देवताओं का नृत्य किया जाता है, धार्मिक नृत्य की चार अवस्थाएँ है।
(1) विशुद्ध देवी देवताओं के नृत्य: ऐसे नृत्यों में 'जागर' लगते हैं उनमें प्रत्येक देवता का आह्‌वान, पूजन एवं नृत्य होता है। ऐसे नृत्य यहां 40 से ऊपर है, यथा निरंकार (विष्णु), नरसिंह (हौड्या), नागर्जा (नागराजा-कृष्ण), बिनसर (शिव) आदि।
(2) देवता के रूप में पाण्डवों का पण्डौं नृत्य: पाण्डवों की सम्पूर्ण कथा को वातारूप में गाकर विभिन्न शैलियों में नृत्य होता है। सम्पूर्ण उत्तरी पर्वतीय शैलियों में पाण्डव नृत्य किया जाता है। कुछ शैलियां इस प्रकार है - (क) कुन्ती बाजा नृत्य, (ख) युधिष्ठिर बाजा नृत्य, (ग) भीम बाजा नृत्य, (घ) अर्जुन बाजा नृत्य, (ड़.) द्रौपदी बाजा नृत्य (च) सहदेव बाजा नृत्य, (छ) नकुल बाजा नृत्य।
(3) मृत अशान्त आत्मा नृत्य: मृतक की आत्मा को शान्त करने के लिए अत्यन्त कारूणिक गीत 'रांसो' का गायन होता है, और डमरू तथा थाली के स्वरों में नृत्य का बाजा बजाया जाता है। इस प्रकार के छ' नृत्य है - चर्याभूत नृत्य, हन्त्या भूत नृत्य, व्यराल नृत्य, सैद नृत्य, घात नृत्य और दल्या भूत नृत्य।
(4) रणभूत देवता: युद्ध में मरे वीर योद्धा भी देव रूप में पूजे तथा नचाए जाते है। बहुत पहले कैत्यूरों और राणा वीरों का घमासान युद्ध हुआ था। आज भी उन वीरों की अशान्त आत्मा उनके वंशजों के सिर पर आ जाती है। भंडारी जाति पर कैंत्यूर वीर और रावत जाति पर राणारौत वीर आता है। आज भी दोनों जातियों के नृत्य में रणकौशल देखने योग्य होता है। रौतेली, भंजी, पोखिरिगाल, कुमयां भूत और सुरजू कुंवर ऐसे वीर नृत्य धार्मिक नृत्यों में आते हैं।
सामाजिक नृत्य: इस प्रकार के नृत्यों में मुद्राओं, नर्तन, अभिनय एवं रस का पूर्ण परिपाक मिलता है। ऐसे नृत्यों में गीतों का महत्व अधिक होता है। इन नृत्यों में प्राचीन भारतीय नृत्यों, मध्यकालीन भारतीय नृत्यों एवं आधुनिक भारतीय नृत्यों का सम्मिश्रण दिखाई पड़ता है। कुछ नृत्य इस प्रकार है :
थड्या नृत्य- बसन्त पंचमी से लेकर विशुवत संक्रान्ति तक अनेक समाजिक व देवताओं के नृत्य गीतों के साथ खुले मैदान में गोलाकार होकर स्त्रियों द्वारा किए गए लास्य कोटि के नृत्य हैं।
चौफुला नृत्य- थड्या की भॉति चौफुला नृत्य भी है, परन्तु इसमें तालियों की गड़गड़ाहट एवं चूड़ियों तथा पाजेबों की झनझनाहट का विशिष्ट स्थान होता है। गुजराती 'गरबा' या 'गरबी' नृत्य की छाप इस पर है।
मयूर नृत्य- पर्वत बेटियों का यह सावन की झड़ी का मनमोहक नृत्य है।
बसन्ती नृत्य- इस नृत्य में प्राचीन परम्परा के मदनोत्सव या बसन्तोत्सव की छाप है।
होली नृत्य- उल्लास एवं रसिकता का नृत्य है। मथुरा, वृन्दावन के रास की छाया इस नृत्य में होती है।
खुदेड़ नृत्य- यह आत्मिक क्षुधा में विह्‌वल, मायके स्मृति में डूबी हुई नायिकाओं का हृदय विदारक गतिमय नृत्य है।
घसियारी नृत्य- पर्वत श्रृखलाओं में घास काटती हुई समवयस्काओं का नृत्य, जो गीतों के स्वरों और दाथी के 'छमणाट' में चलता है।
चांचरी नृत्य- यह गढ़वाल-अल्मोड़ा दोनों क्षेत्रों का समान चहेता नृत्य है। नर्तक एवं नर्तकियों का अर्द्धगोलाकार एवं गोलाकार नृत्य जिसमें हाथ कमर के इर्द-गिर्द होते हैं।
बौछड़ों- पंजाब के भांगड़ा की तरह यह नृत्य शिव भक्ति के रूप में किया जाता है।
बौ-सरेला- देवर भाभी के प्रेम के आधार पर गीतमय नृत्य है।
छोपती नृत्य- लास्य कोटि एवं हिमाचली लावती, बगवाली नृत्य के समान अत्यन्त आकर्षक नृत्य है।
छपेली नृत्य- प्रेम एवं आकर्षण का नृत्य है।
तलवार नृत्य- इस नृत्य को 'चौलिया' नृत्य भी कहते है। ढोल दमाऊँ के स्वरों में तलवार चलाने का स्त्री-पुरूषों का यह नृत्य वीर भावना से ओत-प्रोत है।
केदारा नृत्य- यह ढोल दमाऊँ के कठोर वाद्य स्वरों में विकट तलवार एवं लाठी संचालन का ताण्डव शैली का अद्भुत नृत्य है।
सरांव (सरौ) नृत्य- युद्ध कौशल का अनोखा नृत्य है। पहले ठकुरी राजा दूसरे ठकुरी राजा की पुत्री का अपहरण करने जाते थे। विवाह न होने पर युद्ध हो जाता था। इंडियाकोट का क्षेत्र इस नृत्य के लिए प्रसिद्ध है।
घुघती नृत्य- ममता एवं दुःख विशयक यह नृत्य स्वच्छन्द वातावरण में स्त्रियों के द्वारा किया जाता है।
फौफटी नृत्य- पंजाब के 'कीकी' या 'कीक्ली' नृत्य के समान यह नृत्य गढ़वाली कुमारियों का गीति प्रधान नृत्य है।
बनजारा नृत्य- मध्यकालीन विनोद नृत्य की तरह यह समवयस्का ननद भाभी को चिढ़ाने वाली विनोदी नृत्य है।
जांत्रा नृत्य- पर्व विशेषों पर स्त्रियों द्वारा किया गया यह नृत्य है।, जिसमें किसी पर्व या देवता का वर्णन मुख्य होता है। बंगाल का 'जात्रा' नृत्य इसी के समान है।
झोंडा नृत्य- प्रेमासक्ति का नृत्य है।
बाजूबंद नृत्य- प्रेम संवाद का गीतात्मक नृत्य है।
भैला नृत्य- दीवापली (बग्वाल) की रात में तथा हरिबोधिनी (इगास) की रात में गढ़वाल के गांवों में यह नृत्योत्सव मनाया जाता है।
खुसैड़ा नृत्य- गति से मौज में किया गया यह नृत्य है। वाद्य स्वरो मे कभी भी यह नृत्य किया जाता है।
चेलिया नृत्य- चोलिया नृत्य के साथ कोई भी गीत नहीं गाया जाता है। इसमें नर्तक राजपूत वीरों के लड़ाई के दृष्य हाथ में तलवार एवं ढोल लेकर दर्शाते हैं।
कतिपय विशिष्ट क्षेत्रों के नृत्य: उत्तरी गढ़वाल (अब चमोली जिला) में कुछ मौजी जातियां (भाटिया गढ़वाली) हैं जो हमेशा बर्फीले क्षेत्र में रहती है। अतः उनके नृत्यों में कुछ भौगोलिक एवं सामाजिक कारणों से भिन्नता आ गई है। इनके नृत्य लोक रक्षा, आनन्द, प्रेम तथा मित्रता के द्योतक है। इनके प्रमुख नृत्य - थड़िया, गनगना, पौणा, चंचरी और याक नृत्य है।
गद्दी एवं जाड जातियों के नृत्य: गढ़वाल में ऊँचाइयों पर रहने वाली इन जातियों का जीवन स्वच्छन्द होता है। इनके नृत्यों में भेड-बकरियों का वही स्थान होता है जो मुनष्य का। इनके नृत्य इतने आकर्षक होते हैं जैसे प्रतीत होता है कि अप्सराएँ धरती पर उतर आई हों। भारत सरकार ने 1959 ई0 में इन्हें पुरस्कृत कर सम्मानित किया था। इनके नृत्य हैं - झंझोरी, बणजार, देखणी, फुकन्या तथा बाँसुरिया आदि।
कुमाऊंनी गोठिए (गोष्ठ वाले) के नृत्य: ये लोग जंगलों में गाय, भैसों के साथ ही जंगल में डप्पर डालकर रहते हैं। ये लोग रात में नाच-गाकर अपना समय व्यतीत करते हैं। इनके नृत्यों में सिहवा-विध्वा (कृष्ण के भाई), घटकरण तथा हरूंचामू (गोठियों का देवता) के आख्यान होते हैं, नृत्यों में अभिनय अधिक होता है।
किरात एवं किन्नर जातियों के नृत्य: पुष्प-तोया मालिनी के तटों पर यह जातियाँ निवास करती है जो अब पूर्णतः गढ़वाली जीवन में में ढल चुकी है। फूयोंली, हिलांसी, कफ्फू आदि इनके नृत्य है। उपर्युक्त नृत्यों के अतिरिक्त पशुचारकों, पक्षियों के झांझोटी, प्रेमजी, वणजारा आदि भी नृत्य दर्शकों को आकर्षित करते हैं।
व्यावसायिक नृत्य: औजी, बद्दी, मिरासी, ठक्की एवं हुड़क्या व्यावसायिक जातियां अपने कला का प्रदर्शन करके अपनी आजीविका कमाती है। औली 'ढोल सागर' के ज्ञाता है। बद्दी जातिया नाच-गाकर ही अपना जीवन चलाती है। पहले गढ़वाल के ठकुरी राजाओं का आश्रय प्राप्त था लेकिन आजकल बदहाली की स्थिति में है। इनकी कला में भरत- नाट्यम, कुचिपुड़ी एवं मणिपुरी नृत्य शैलियों के दर्शन होते है। गढ़वाल, कुमाऊँ में ये सभी जातियां उच्चकोटि के शिल्पकार है, इनके मुख्य नृत्य इस प्रकार है। :
थाली नृत्य : बाद्दी ढोलक व सारंगी बजाकर गीत की प्रथम पंक्ति गाता है। उसकी पत्नी थालियों के साथ विभिन्न मुद्रा में नृत्य प्रस्तुत करती है। सरौं नृत्य : औजियों का यह नृत्य है। चैती पसारा : चैत के सारे महीने व्यावसायिक जातियों के लोग अपने-अपने ठाकुरों के घरों के आगे गाते तथा नाचते हैं।कुलाचार : कुल प्रशंसा गाते हुए 'हुड़क्का' स्वयं नृत्य भी करता है।लांग नृत्य :मध्यकालीन लांग नृत्य के समान है। यह नृत्य वाद्दी करते हैं।शिव-पार्वती नृत्य : बाद्दी या मिरासी शिव के कथानक को लेकर पार्वती के जन्म से लेकर विवाह, संयोग, वियोग एवं पुत्रोत्पत्ति आदि अवस्थाओं का नृत्य करते है।नट-नटी नृत्य : जन समाज मनोरंजनार्थ ये लोग नट-नटी का हास्यपूर्ण प्रसंग अपने नृत्यों में रखते हैं। ऐसे नृत्यों का आयोजन मेलों में अधिक होता है। दीपक नृत्य : प्रारम्भ में यह नृत्य थाली नृत्य के समान ही होता है। अन्त में दीये थाल में सजाकर नर्तकी नृत्य करती है।सुई नृत्य : अनेक आंगिक अभिनय दिखाने के बाद नर्ककी अपने ओठों से सुई उठाकर अपना कमाल दिखाती हैं।साँप नृत्य : साँप की तरह रेंगती हुई नर्तकी, साँप पर छंछदर का भावमय नृत्य प्रस्तुत करती है।
उत्तराखण्ड का गढ़वाल परिक्षेत्र विविध लोक कलाओं, नृत्यों एवं गीतों से भरा पड़ा है। आश्रय न मिलने के कारण इसका लोप हो रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इसको जीवन्त रखा जाये ताकि यह कला अक्षुण्ण रह सके।
लोक गायक/नर्तक उत्तराखण्ड: ललित कलाएँ
भारत की सभी पारम्परिक कलाओं के सदृश उत्तराखण्ड की लोक कलाओं पर धार्मिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इस धार्मिक प्रभाव के अनुसार ही इसे विविध रूप दिया गया है। उत्तराखण्ड की लोक कला को मोटे तौर पर चार भागों में वर्गीकरण किया जा सकता हैः
ऐपना
(1) ऐपना: ऐपना शब्द अल्पना का स्थानीय रूपान्तर है। यह ऑगन से प्रवेश द्वार तक जाने वाली सीढ़ियों पर, देहरी पर, पूजा स्थल की भूमि और दीवारों पर, बैठने की पीढ़ी पर, सूप के ऊपरी सतह पर, जिस पात्र में तुलसी उगाई गई है, उसके बाहरी सतह पर और ओखली के चारों ओर बनाए गये रंगीन नमूनों के लिए प्रयुक्त होता है। प्रायः ऐपना का निर्माण पानी, लाल मिट्टी और चावल की लेई से होता है।
ऐपना
(2) बार-बूँद: सर्वत्र बारम्बार एक ही नमूने से पूरी दीवार को चित्रित करना ही बार-बूँद बनाना है। इस शब्द का अक्षरषः अर्थ रेखाओं और बिन्दुओं से है। परम्परा के अनुसार कुछ निश्चित बिन्दुओं को बनाकर उनकी रेखाओं से जोड़कर दीवार पर विभिन्न नमूने बनाए जाते है, इस तरह बनाए गये नमूनों को विभिन्न रंगों द्वारा भरा जाता है।
(3) ज्योति और पट्टा: ज्योति शब्द जीव मातृक ( सभी प्राणियों की जननी) शब्द से उत्पन्न हुआ है और यह नमूना तीन देवियों का चित्रण है, जो जीव मातृकाएँ हैं। इनके साथ ही गणेश का भी अंकन होता है जिन्हें सभी विध्नों का नाश करने वाला माना गया है। पट्टा वह चित्र है जो किसी देवता विशेष का चित्रण करता है जिसमें उस देवी या देव को विभिन्न रूपों में दर्शाया जाता है और यह पूजा के लिए होता है। यह जन्माष्टमी, दशहरा और दीपावली जैसे त्यौहारों पर अथवा उत्सवों के अवसरों पर दीवारों अथवा कागज पर बनाया जाता है।
(4) दिकारा: दिकारा, देवी-देवताओं की मिट्टी की चारों दिशाओं में उभारदार मूर्तियाँ होती है। इनको कपास मिश्रित चिकनी मिट्टी से लड़कियाँ और स्त्रियाँ बनाती है, सूखने पर इनको चावल पीसकर जो सफेद रंग बन जाता है, उसमें रंगते है और इसके बाद सारे रंगों से अथवा रंगों में गोद मिलाकर पेंट किया जाता हैं। वर्षा ऋतु में हरियाली के उत्सव पर पूजा करने हेतु दिकारा बनायी जाती है। यह मूलतः किसानों का त्यौहार है जो शिव-पार्वती के विवाह के वार्षिकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व पर मुख्यतः शिव और पार्वती और उनके दो पुत्र गणेश और कार्तिकेय को ही दिकारा बनती है।

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