देश के विभिन्न भागों से विशेष रूप से उत्तर प्रदेश से ताम्रयुगीन उपकरण वर्ष 1822 से ही प्रकाश में आते रहे हैं। किन्तु उनकी ओर ध्यान 1905 और 1907 में सर्वप्रथम आगरा अवध प्रांत के जिला मजिस्ट्रेट विसेंट स्मिथ ने ही दिया। उस समय तक जो ताम्रायुध मिले थे उनकी संशिप्त सूची प्रस्तुत करते हुए उन्होनें इस देश में सर्वप्रथम ताम्रयुग की कल्पना की। वर्ष1915 में हरदोई और बुलन्दशहर जिलों के आसपास कुछ और ताम्रआयुध मिले परन्तु इनके सम्बन्ध में में विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डा0 बी0बी0लाल ने एक संशिप्त लेख लिखकर इस विषय की समस्याओं पर प्रकाश डाला और लोगों का ध्यान आकर्षित किया। उत्तर प्रदेश में बदायॅू, इटावा, बुलन्दशहर, एटा और शिवराजपुर से ताम्र उपकरण प्राप्त हो चुके हैं। परन्तु इनकी सीमा रेखा का विस्तार पर्वतीय भूभाग की ओर नहीं हो पा रहा था। पहले ये अनुमान लगाये जाते थे कि उत्तर प्रदेश में ताम्रयुगीन उपकरण केवल उन क्षेत्रों में मिलते हैं जो गंगाकांठे वाले क्षेत्र अथवा सपाट भूभाग वाले मैदानी इलाके हैं। कुमाऊँ तथा गढ़वाल मंडलों पहले मिलने वाले शैलचित्रों से यद्यपि यह सम्भावना व्यक्त की गयी थी कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही मानव विचरण करता था तथा ताम्रसंचयी संस्कृति जैसी किसी संस्कृति के यहां पल्लवित होने की केवल कल्पना ही की जा सकती हैं। लेकिन हाल ही में श्रंखलाबध्दरूप से मिलने वाले ताम्रयुगीन उपकरणों ने कुमाऊँ मंडल में में ताम्रसंयची संस्कृति के पल्लवित रहे होने की अवधारणा को स्पष्ट रूप से पुष्ट किया है। ।
ताम्र संस्कृति का प्रथम उपकरण कुमाऊँ में सर्वप्रथम वर्ष 1986में एक ताम्र मानवाकृति के रूप में इस लेखक को हल्द्वानी से प्राप्त हुआ। श्री शिवराज सरन जिनके यहां यह मानवाकृति प्राप्त हुई है को चालीस के दशक में कोई व्यक्ति अल्मोड़ा नगर में कबाड़ के रूप में इसे बेच गया था। यह उपकरण मानवाकृति सदृश है। इस खोज के बाद पुराविदों की सहज जिज्ञासा इस ओर और अधिक हुई तथा कुमाऊँ मंडल में ताम्रसंचयी संस्कृति की अवधारणा को पुष्ट करने के निश्चित प्रयास प्रारभ्म हुए। हल्द्वानी से प्राप्त ताम्रमानवाकृति का मिलना इस क्षेत्र के पुरातत्व के लिए अद्भुद घटना थी। इस उपकरण की खोज के बाद इस लेखक ने यह सम्भावना व्यक्त की थी कि आने वाले वर्षौ में ऐसी और ताम्र मानवाकृतियां और भी मिल सकती हैं जो इस क्षेत्र में ताम्र संस्कृति के विद्यमान रहने की अवधारणा को निश्चित ही पुष्ट करेंगी। इसके कुछ वर्ष बाद ही 1989में बनकोट जिला पिथौरागढ़ में आठ ऐसी मानवाकृतियां प्राप्त हुईं। वर्ष 1999 में नैनीपातल से पाँच अन्य ताम्रमानवाकृतियां भी प्राप्त हुई । इस प्रकार ताम्रसंचयी संस्कृति के उपकरणों के रूप में कुमाऊँ मंडल में अभी तक चौदह ताम्र मानवाकृतियां प्राप्त हो चुकी हैं। इनमें से एक हल्द्वानी से, आठ बनकोट एवं पांच नैनीपातल से प्राप्त हुई हैं।
हल्द्वानी से प्राप्त मानवाकृति गंगाकांठे से मिलने वाली मानवाकृतियों जैसी ही हैं। इस आकृति का उपरी भाग सिर की तरह गोल हैं नीचे दो लम्बे पैर हैं। लम्बाई 40 सेमी से ज्यादा है। जबकि वक्ष सहित दोनों किनारे 38 सेमी लम्बे हैं। आकृति के मध्य की चौड़ाई 9.36 सेमी है। लेकिन इस आकृति में वास्तविक हाथ पैर के कोई निशान मौजूद नहीं है । ये आकृति तांबे को पीट पीट कर बनाई गयी होगी। जिसके किनारे चपटे और हल्के से धारदार हैं। इसी प्रकार की पांच मानवाकृतियां वर्ष 1999मे नैनीपातल सें प्राप्त हुई। बनकोट जिला पिथौरागढ़ से प्राप्त मानवाकृतियां पत्थर निकालने वाली एक खान के पास से प्राप्त हुई। जो जमीन के अन्दर एक के उपर एक रखी हुई थीं। इनको एक पटाल से ढककर रखा गया था। इनकी चौड़ाई बाहुओं सहित लगभग 14 से 30.5 तक, लम्बाई 14 सेमी0से 24 सेमी तक तथा मोटाई अधिकतम 3 सेमी तथा वजन 2.40किग्रा से3.30 किग्रा तक है। नैनीपातल में प्राप्त मानवाकृतियाें की चौडाई एक भुजा से दूसरी भुजा तक 27 से 32 सेमी के मध्य तथा शीर्ष से पांव तक 16सेमी से 22 सेमी के मध्य रही है इनका भार भी 1 से10 किलों ग्राम के मध्य है।
जहां तक कुमाऊँ मंडल से मिलने वाली मानवाकृतियोंकी संरचना का प्रश्न है इन सभी का उपरी भाग सिर की तरह गोल है। सिर के नीचे दोनों ओर भीतर की ओर मुड़े हुए हाथ और उनके नीचे दो लम्बे नुकीले पैर हैं। इनमें वास्तविक हाथ पैर के कोई निशान मौजूद नही हैं। बाजारों में शनि दान के लिए जिस प्रकार की प्रतिमा लेकर दान मांगने वाले आते है, लगभग वैसा ही इनका रूप होता है, परन्तु मोटाई में अवश्य अन्तर होता है। इनके सिर का किनारा धारदार और पतला होता है। हल्द्वानी से प्राप्त मानवाकृति के हाथ दोनों ओर अन्दर की ओर घूमें हुए हैं जबकि शेष मानवाकृतियों के हाथ सीधे और सपाट है। पैर भी किंचित मोटाई लिए हुए है। अभी तक जो जो उपकरण पाये गये हैं। उनकी लम्बाई लगभग 40सेमी तक मिली है। हल्द्वानी में प्राप्त मानवाकृति तो ढलवां न होकर पीट पीट कर बनायी गयी हैं शेष मिलने वाली मानवाकृतियां वनकोट और नैनीपातल की है जो ढलवां बनायी गयी हैं। पहले जो ताम्रयुगीन उपकरण मिले थे उनकी परिधि सहारनपुर ,बिजनौर, मुरादाबाद और बदायू से आगे नहीं बढ सकी थी। इस क्षेत्र में पहले मिलने वाले शैलचित्रों ने हालांकि यह सम्भावना व्यक्त की थी कि यहां प्राचीन काल से ही मानव विचरण करता था तथा ताम्रयुग जैसी किसी सभ्यता की कल्पना भी की जा सकती हैं लेकिन हाल ही में उत्तरांचल में मिलने वाली ताम्रमानवाकृतियों ने इतिहासकारों की धारणा को स्पष्ट रूप से पुष्ट किया है।
परन्तु यह तो निश्चित है कि पर्वतीय क्षेत्र में तांबे की खाने पहले ही से मौजूद रही हैं। जिनसे पूर्व में भी तांबा निकाला जाता था। इससे प्रतीत होता है कि तत्कालीन ताम्रप्रयोक्ता अपने प्रयोग के लिए तांबां निजी खानों से ही निकालते होंगे। इतना ही नहीं तांबे के निष्कर्षण की तकनीकि में भी वे पांरगत थे। हल्द्वानी में प्राप्त मानवाकृति तो ढलवां न होकर पीट पीट कर बनायी गयी हैं। शेष मिलने वाली वनकोट और नैनीपातल की है। जो ढलवां बनायी गयी है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये धातु को गलाने,पीट-पीट कर आकृति देने, उनको चौड़ा करने आदि धातु कर्म में भी प्रवीण थे।
हल्द्वानी से प्राप्त मानवाकृति को छोड़कर शेष सभी मानवाकृतियां जमीन के नीचे से दबी मिली हैं। यद्यपि कुछ विद्वानों ने पूर्व में अपना यह अभिमत अवश्य दिया था कि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में तांबे के उपलब्ध होने के कारण सम्भवत: गंगाघाटी की ताम्रसंस्कृति के वाहकों को भी तांबा निर्यात यही से किया जाता होगा। परन्मु इसके लिए कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल पाये। यह अवश्य था कि जिन मैदानी इलाकों के आसपास में पूर्व में ताम्रमानवाकृतियां प्राप्त हुई है वहां तांबे की खानें उपलब्ध नहीं थीं। डा0 एम पी जोशी सरीखे विद्वानों ने अभिमत दिया कि स्थानीय टम्टा सम्भवत: ताम्रसंचयी संस्कृति के रचियताओं के वंशज हैं। इस लेखक का मानना है कि आगरी लोगों ने ही सर्वप्रथम खानों से ताम्रअयस्क को निकालना प्रारम्भ किया तथा स्थानीय आगरी जाति अथवा टम्टा जाति के लोगों के पूर्वज ही वे लोग रहे होंगे जिन्होने सर्वप्रथम स्थानीय खानों से तांबा इत्यादि धातुओं को निकाल कर इन खानों का व्यवसायिक दोहन प्रारम्भ किया होगा। डा0 डी पी अग्रवाल ने अभिमत दिया है कि आगर शब्द तांबे की खानों के लिए प्रयुक्त हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि आगरी तथा टम्टा जाति के लोग पूर्व से ही खानों से धातु निष्कर्षण की तकनीकि में प्रवीण थे। इस क्षेत्र में सम्भवत: टम्टा ही वह जाति है जो ताम्रकला में सिध्दहस्त ही नहीं है अपितु धातु निष्कर्षण की तकनीक में दक्ष एवं अयस्क को अपनी जरूरत के धातुकर्म के अनुसार उपचारित कर धातुरूप में परिवर्तित कर सकते हैं। ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिनसे लगता हो कि ये बाहर से आयात की गयी है यद्यपि उ प्र से भी मानवाकृतियां प्राप्त हुई हैं लेकिन एक साथ इतनी मानवाकृतियां कहीं से प्राप्त नहीं हुई है।
डा0 यशोधर मठपाल सरीखें विद्वानों ने स्थानीय रूप से प्राप्त शैलचित्रो को कृषि कार्यों में लगे मानव कबीलों से जोड़ा है तो क्या इन मानवाकृतियों को आखेट से जोड़ा जा सकता है। जब तक इन मानवाकृतियों का निश्चित प्रयोग नहीं मालूम पड़ता हांलांकि तब तक तो कुछ भी कहना मुश्किल है। ये आयुध क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है इसकी जानकारी के अभाव में इसे अपने रूप के आधार पर मानवाकृति नाम से अभिविहित किया गया है। कदाचित मूर्तिपूजा के प्रारम्भ होने से बहुत पहले इस प्रकार की मानवाकृतियां मानवीय आस्थाओं से सम्बन्धित होकर पूजित होती रहीं हैं। कुमाऊँ में ताम्रखदानों में प्रारम्भ से ही व्यवसायिक स्तर पर ताबें का निष्कषर्ण होता रहा था। राइं-आगर, बोरा-आगर, सीरा, असकोट, खरही एवं रामगढ में व्यवसायिक स्तर पर उत्पादन करने वाली ताम्रखदानें रही थीं। प्रो डी पी अग्रवाल ने अयस्क से तांबां तैयार करने वाली तीन प्राचीन भट्टियों का उल्लेख किया है जो राइ्र-आगर क्षेत्र से प्राप्त हुई है। यद्यपि ये काफी नष्ट हो चुकी हैं। फिर भी पता चलता है कि 19वीं शती तक इन भट्टियो का अयस्क निष्कर्षण के लिए प्रयोग किया जाता होगा। डा0 मदनचंद भट्ट को उपलब्ध एक ताम्रपत्र से पता चलता है कि तांबे की खानों के प्रचुरता से उपलबध होने के कारण राजा लोग ऐसे गांव जिनमें तांबे की खाने थीं ताम्रकला के लिए उपहार स्वरूप भी दिया करते थे। मणिकोटी राजा पृथ्वीचंद के अठिगांव ताम्रपत्र में विवरण मिलता है कि उहोने वशु उपाध्याय नामक ब्राहमण को ताम्रकला के लिए एक गांव दान दिया था। लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिनसे लगता हो कि ये मानवाकृतियां बाहर से आयात की गयी है यद्यपि उ प्र से भी मानवाकृतियां प्राप्त हुई हैं लेकिन एक साथ इतनी मानवाकृतियां कहीं से प्राप्त नहीं हुई है। ये आयुध क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है इसकी जानकारी के अभाव में इसे अपने रूप के आधार पर मानवाकृति नाम से अभिविहित किया गया है। कदाचित मूर्तिपूजा के प्रारम्भ होने से बहुत पहले इस प्रकार की मानवाकृतियां मानवीय आस्थाओं से सम्बन्धित होकर पूजित होती रहीं हैं। में योजनाबध्द उत्खनन के अभाव में ताम्रसंचयी संस्कृति के उपकरण न के बराबर प्राप्त हुए हैं। जो मानवाकृतियां प्राप्त भी हुई हैं वे अनायास तथा भूमि की उपरी सतह के भीतर रखी हुई थीं। वैसे भी निर्माणाधिकार्यों में प्राचीन सामग्री मिलती ही रहती है। लेकिन खेद जनक है कि लोगों को इन चीजों की जानकारी नहीं हैं और वे इन महत्वपूर्ण अवशेषों को भी बाजार में पुराने तांबे के भाव बेच आते हैं। इस छोटे से क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में ताम्रमानवाकृतियां मिलना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। हो सकता है कि भविष्य में होने वाले योजनाबध्द सर्वेक्षणों तथा उत्खनन आदि से यहां ताम्रसंचयी संस्कृति के अनजाने पृष्ठों पर भी विस्तृत सामग्री उपलब्ध हो जाये।
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