उत्तराखण्ड की समृद्ध वास्तुकला का परिचायक अपनी तरह का अनूठा द्वाराहाट का गूजरदेव कभी उत्तर भारत के सर्वाधिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मंदिरों में शुमार रहा है लेकिन यह देवालय फिलहाल तो वक्त के थपेड़ो से जूझ रहा है। अल्मोड़ा जनपद का द्वाराहाट नगर पांडवों की निर्वासन स्थली और उनसे संबंधित मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। द्वाराहाट को मंदिरों व नौलों का नगर भी कहा जाता है। पूरे नगर क्षेत्र में पचपन से अधिक मंदिर हैं। गूजरदेव मंदिर इनमें अपने सौंदर्य के लिए विख्यात है। उत्तराखंड के प्रतापी राजवंशों द्वारा निर्मित यह देवालय द्वाराहाट नगर में शालदेव पोखर के निकट एक 4 फीट उंची जगती में बनाया गया है। यद्यपि गूजरदेव मंदिर पूरी तरह से जीर्णक्षीर्ण होकर भग्नावशेषों में बदल चुका है तो भी जो अवशेष मौजूद है उनमें जगती को गज आकृतियों से अलंकृत किया गया है। विश्वास किया जाता है कि यह मंदिर कभी पंचायतन रहा होगा परंतु वर्तमान में चारों कोनों पर स्थापित लघु मंदिर समय के थपेड़ों के कारण नष्ट हो गए हैं, आज इन मंदिरों की नींव के प्रस्तर खंड ही बस दिखाई पड़ते हैं। मुख्य मंदिर भी अब एक भग्न स्मारक मात्र ही रह गया है। जो ध्वंसावशेष बचे हैं उनसे प्रतीत होता है कि मंदिर में गर्भगृह, मंडप आदि देवालय के आवश्यक अंग बनाये गये थे। पश्चिममुखी मुख्य मंदिर के मुख्य अधिष्ठान में जाने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग हुआ है जिसे शंख तथा चंद्रमा आदि से अलकंृत किया गया है। मंदिर देखकर ऐसा लगता है कि अपने समय में इसकी भव्यता देखते ही बनती होगी। भग्नावशेषों में के आधार पर कहा जा सकता है के इसके जैसे प्रासाद सौष्ठव व स्वरूप का देवालय आसपास कहीं न होगा। रथिकाओं में देवी देवताओं की आकृतियां उकेरी गई हंै। शैली के आधार पर इसका को महामारू श्रेणी में रखा गया है। 13वीं शताब्दी के आस पास निर्मित यह देवालय शिव को चढ़ाया गया है। मंदिर में नव गृह भी विराजमान हैं।
गूजरदेव मंदिर का शिल्प अपने सौंदर्य को स्वंय निहारता प्रतीत होता है। के पी नौटियाल सरीखे इतिहासविदों का मानना है कि गूजरदेव मंदिर चम्पावत के बालेश्वर मंदिर के बाद ही निर्मित हुआ होगा। उन्होनें इसका निर्माण 14 शती के अंत अथवा 15 शती के प्रारंभ में हुआ माना है।
गूजरदेव मंदिर संरचना, सौन्दर्य, वास्तु शैली एवं पुरातत्व की दृष्टि से द्वाराहाट में बनवाए गए तमाम मंदिरों व नौलों में अनूठा है। राजा गूजरदेव के नाम पर बना यह देवालय शिव को अर्पित है। इस मंदिर के मध्य भाग की कुछ प्रतिमांऐ जैन कला से प्रभावित प्रतीत होती हैं। जैन देवी चक्रेश्वरी की प्रतिमा यहां उकेरी गई है। गूजरदेव मंदिर की कला में जैन प्रभाव किस प्रकार आया आज भी पुराविदों के लिए जिज्ञासा का विषय है। मंदिर के अनेक कला प्रतीक जैन कला से प्रभावित प्रतीत होते है। कला पारखियों का मानना है कि संभवत यह गुजरात और राजपूताना की मंदिर कला से लिया गया होगा। मंदिर में अन्य हिन्दु मंदिरों की भांति जलहरी पानी के निकास के लिए नहीं बनी है। इसका वास्तु सौंदर्य चम्पावत के बालेश्वर मंदिर से भी काफी मिलता है जिस कारण यह माना जाता है कि इस देवालय का निर्माण बालेश्वर मंदिर के बाद हुआ होगा।
बरसों से उपेक्षित द्वाराहाट के गूजरदेव जैसे मंदिरों को पर्याप्त प्रचार मिल पाता तो इस क्षेत्र के ऐतिहासिक धार्मिक पर्यटन को भी पर्याप्त बढ़ावा मिलता। लेकिन न तो प्रदेश सरकार न ही भापुस ही इस ओर कोई रूचि लेता प्रतीत होता है। इसका परिणाम यह है कि अल्मोड़ा-बद्रीनाथ मुख्य मार्ग पर स्थित गूजर देव जैसे अनेक मंदिरों के इस शहर में धार्मिक व ऐतिहासिक स्थल उपेक्षित होकर रह गये हंै। यदि इन देवालयों के संरक्षण को पर्यटन से जोड़ दिया जाये तो निश्चय ही क्षेत्रीय रोजगार केा एक बड़ा संसाधन उपलब्घ हो सकेगा।
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